कल्पना (Imagination)-
‘कल्पना वह आभासी मानसिक क्रिया है जिसके द्वारा पुराने अनुभवों तथा घटनाओं को एक संगठित रूप में पुनः स्मरण करते हैं।
मैक्डूगल के अनुसार, “हम कल्पना या कल्पना करने की उचित परिभाषा अप्रत्यक्ष बातो के सम्बन्ध विचार करने के रूप में कह सकते हैं।”
कल्पना के प्रकार– विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने कल्पना का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया है। उनमें से कुछ प्रमुख मनोवैज्ञानिकों द्वारा
किया गया वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से है-
किया गया वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से है-
मैक्डूगल के अनुसार- मैक्डूगल ने कल्पना को दो भागों में बाँटा-
(1) पुनरुत्पादक कल्पना।
(2) उत्पादक कल्पना।
उत्पादक कल्पना को भी मैक्डूगल ने दो भागों में बाँटा-
(a) रचनात्मक कल्पना।
(b) सृजनात्मक करना।
(1) पुनरुत्पादक कल्पना।
(2) उत्पादक कल्पना।
उत्पादक कल्पना को भी मैक्डूगल ने दो भागों में बाँटा-
(a) रचनात्मक कल्पना।
(b) सृजनात्मक करना।
(1) पुरनारुत्पादक कल्पना- इस कल्पना में गत अनुभवों एवं घटनाओं को ज्यों का त्यों चेतना में लाने का प्रयास किया जाता है।
(2) उत्पादक कल्पना- इस प्रकार की कल्पना में गत अनुभवों एवं घटनाओं को एक नवीन क्रम में चेतना में लाने का प्रयल किया जाता है।
(2) उत्पादक कल्पना- इस प्रकार की कल्पना में गत अनुभवों एवं घटनाओं को एक नवीन क्रम में चेतना में लाने का प्रयल किया जाता है।
(a) रचनात्मक कल्पना– इस कल्पना का प्रयोग भौतिक पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
(b) सृजनात्मक कल्पना- इस प्रकार की कल्पना का प्रयोग अभौतिक पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
(b) सृजनात्मक कल्पना- इस प्रकार की कल्पना का प्रयोग अभौतिक पदार्थों के निर्माण में किया जाता है।
जेम्स ड्रेवर के अनुसार वर्गीकरण-जेम्स ड्रेवर के अनुसार कल्पना का वर्गीकरण अग्र प्रकार है-
(1) गृहणात्मक कल्पना (Receptive Imagination) – इस प्रकार की कल्पना का उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में किया जाता है। इतिहास, भूगोल को पढ़ाते समय जब शिक्षक मानचित्र को दिखाकर समझाता है तो उस समय बालक की कल्पना गृहणात्मक कल्पना होती है। इसलिए इस प्रकार की कल्पना को गृहणात्मक कल्पना कहते हैं।
(2) सृजनात्मक कल्पना (Creative Imagination)- इस प्रकार की कल्पना में बालक अतीत में प्राप्त घटनाओं या अनुभवों के द्वारा मन में एक काल्पनिक परिस्थिति बनाता है और पूर्व में प्राप्त घटनाओं या
अनुभवों के द्वारा प्राप्त ज्ञान को नवीन क्रम में व्यवस्थित करता है। यह कल्पना भविष्योन्मुख होती है।
सृजनात्मक कल्पना दो प्रकार की होती हैं-
अनुभवों के द्वारा प्राप्त ज्ञान को नवीन क्रम में व्यवस्थित करता है। यह कल्पना भविष्योन्मुख होती है।
सृजनात्मक कल्पना दो प्रकार की होती हैं-
(i) कार्य साधक कल्पना (Pragmatic Imagination)- इस प्रकार की कल्पना विचारक, खोजकर्ता, और वैज्ञानिकों की होती है।
(ii) रसात्मक कल्पना- यह कल्पना सौन्दर्य-लिप्सा या भावनाओं को संतुष्ट करती है। रसात्मक कल्पना दो प्रकार की होती है-
(a) कलात्मक कल्पना- इस प्रकार की कल्पना का उपयोग नाटक, कहानी. उपन्यास में किया जाता है। यह कल्पना सत्यं, शिवम्, सुन्दरम् के आदर्शों का सम्पोषण करती है।
(b) मनतरंगी कल्पना- इस प्रकार की कल्पना में किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं होता है। इस प्रकार की कल्पना को ख्याली पुलाव बनाना, हवाई किले बनाना आदि नाम दिये जाते हैं।
चिंतन (Thinking)- चिंतन एक मानसिक क्रिया होती है जिसमें कल्पना,स्मृति, तर्क, ध्यान, संवेदना आदि का समावेश होता है। सफल चिंतन के लिए तर्क एक अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
रॉस के अनुसार चिंतन मानसिक क्रिया का ज्ञानात्मक पहलू है।
चिंतन के प्रकार (Types of thinking)-चिंतन चार प्रकार का होता है-
1. प्रत्यक्षात्मक चिंतन (Perceptual Thinking)- प्रत्यक्षात्मक चिंतन का मुख्य आधार प्रत्यक्ष ज्ञान एवं पूर्व में प्राप्त अनुभवों पर आधारित होता है।
Note : इस प्रकार का चिंतन छोटे बालक एवं पशुओं में पाया जाता है।
2. काल्पनिक चिंतन (Imaginative Thinking)- काल्पनिक चिंतन में कोई वस्तु घटना या परिस्थिति प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित नहीं होती। इस प्रकार के चिंतन में पूर्व में अर्जित अनुभवों तथा ज्ञान का प्रयोग होता है।
3. प्रत्ययात्मक चिंतन (Conceptual Thingking)- प्रत्ययात्मक चिंतन में व्यक्ति पूर्व में अर्जित अनुभवों के आधार पर किसी परिस्थिति का बारीकी से विश्लेषण करके भविष्य का ध्यान रखते हुए किसी निश्चय पर पहुंचता है।
4. तार्किक चिंतन (Logical Thinking)- इस प्रकार के चिंतन को सर्वश्रेष्ठ चिंतन माना गया है।
Note : जॉन डीवी ने तार्किक चिंतन को विचारात्मक चिंतन कहा है। इस प्रकार के चिंतन का मुख्य आधार तर्क होता है।
चिंतन के तत्व- वुडवर्थ के अनुसार चिंतन के पाँच तत्व होते हैं-
(1) लक्ष्य की ओर उन्मुख होना।
(2) लक्ष्य प्राप्ति के लिए इधर-उधर रास्ता ढूँढना।
(3) अनुभवों का पुनः स्मरण।
(4) अनुभवों को नवीन रूप में समायोजित करना।
(5) आन्तरिक वाक्गतियाँ एवं मुद्राएँ।