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जीन पियाजे वाइगोटस्की व लारेंस कोहलबर्ग
मानव वृद्धि व विकास के विभिन्न आयाम है। जीन पियाजे , वाइगोटस्की व लारेंस कोहलबर्ग इन्हीं आयामों से जुड़े सिद्धान्त प्रस्तुत करते है।
जीन पियाजे व वाइगोटस्की संज्ञानात्मक विकास के क्षेत्र में अपने सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं, जबकि लारेंस कोहलबर्ग
नैतिक विकास का सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं।
जीन पियाजे का सिद्धान्त
जीन पियाजे एक प्रमुख स्विस मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने अल्फ्रेड बिने के साथ बुद्धि-परीक्षणों पर कार्य किया। उन्होंने बालकों के संज्ञानात्मक विकास पर कार्य किया । तत्पश्चात् संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
पियाजे अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त में कहते हैं कि बालकों में वास्तविकता के स्वरूप के बारे में चिन्तन करने तथा उसे खोज करने को शक्ति न तो बालकों के परिपक्वता स्तर पर और न ही सिर्फ उसके अनुभवों पर निर्भर करता है, बल्कि इन दोनों की अन्त:क्रिया द्वारा निर्धारित होती है।
पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धाना में महत्त्वपूर्ण संप्रत्यय इस प्रकार है-
1.अनुकूलन (Adaptation) : पियाजे के अनुसार, बालकों में वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने को जन्मजात प्रकृति को अनुकूलन कहते हैं। अनुकूलन की दो उपक्रियाएँ हैं-
(A) आत्म-साकरण (Assimilation): (B) समायोजन (Accommodation)
(A) आत्म-सात्करण : आत्म-सात्करण से अभिप्राय यह है कि जब बालक अपनी समस्या का समाधान करने के लिए या वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने हेतु पूर्व में सीखी गई क्रियाओं का सहारा लेता है।
(B) समायोजन : समायोजन में पूर्व में सीखी क्रिया काम नहीं आती, बल्कि बालक अपनी योजना या व्यवहार में परिवर्तन लाकर नए वातावरण से सामंजस्य स्थापित करता है।
2.साम्यधारण : यह प्रत्यय अनुकूलन से मिलता है। साम्यधारण में बालक आत्म-सात्करण व समायोजन के बीच संतुलन स्थापित करता है। साम्यधारण प्रत्यय में बालक आत्मसात्करण व समायोजन, दोनों का प्रयोग करता है।
3. संरक्षणा : संरक्षण से अभिप्राय वातावरण में परिवर्तन तथा स्थिरता को पहचानने व समझने की क्षमता से है। किसी वस्तु के रूप-रंग में परिवर्तन को उस वस्तु के तत्व में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता से है।
4.संज्ञानात्मक संरचना : किसी भी बालक का मानसिक संगठन या मानसिक क्षमताओं के सेट को संज्ञानात्मक संरचना कहते है।
5.मानसिक संक्रिया : बालक द्वारा किसी समस्या के समाधान पर चिन्तन करना मानसिक संक्रिया करना माना जाता है।
6.स्कीम : व्यवहारों के संगठित पैटर्न को, जिसे आसानी से दोहराया जा सके, जैसे कार चलाने के लिए कार स्टार्ट करना, गेयर डालना, स्पीड देना सभी उपक्रियाओं को मिलाकर एक कार्य हुआ । यह संगठित पैटर्न हो स्कीम्स कहा जाता है।
7.स्कीमा : स्कीमा से तात्पर्य ऐसी मानसिक संरचना से है जिसका सामान्यीकरण (generalization) किया जा सके ।
8.विकेन्द्रीकरण : किसी भी वस्तु या चोज के बारे में वस्तुनिष्ठ या वास्तविक ढंग से सोचने की क्षमता विकेन्द्रण कहा जाता है। प्रारम्भ में बालक ऐसा नहीं सोचता, परन्तु 2 साल का होते-होते वह वस्तु के बारे में वास्तविक ढंग से सोचने लगता है।
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पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त
पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास को चार मुख्य अवस्थाओं में बांटा है:
1. इन्द्रियजनित गामक अवस्था (Sensory-motor stage) 0-2 साल
2 पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational stage) 2-7 साल
3. मूर्त-संक्रियात्मक अवस्था (Concrete operational stage) 7-11 साल
4.अमूर्त-संक्रियात्मक अवस्था (Formal operational stage) 11-15 साल
1. इन्द्रियजनित गामक अवस्था : यह अवस्था जन्म से दो वर्ष की अवधि में पूरी होती है। इस अवस्था में वह अपनी मानसिक क्रियाओं को अपनी इन्द्रियजनित गामक क्रियाओं के रूप में प्रकट करता है। शारीरिक रूप से चीजों को इधर-उधर करना, किसी चीज को पकड़ना, अपने भावों को रोकर व्यक्त करना, जो चाहिए, उसे दिखाकर अपनी बात कहना इसके प्रमुख लक्षण हैं। जो भी कुछ कहना या समझना होता है, उसकी अभिव्यक्ति गामक क्रियाओं के रूप में करता है। वस्तु का अस्तित्व तब तक होता है, जब तक वह उसके सामने रहती है, परन्तु दो वर्ष की समाप्ति होने तक वह उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारम्भ कर देता है, जो सीधे दृष्टिगोचर नहीं होती। 3-4 महीने तक वस्तु उनके सामने से हटाने पर उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है, परन्तु अब उसका चिन्तन अधिक वास्तविक हो जाता है। वस्तु सामने न होने पर भी उसका अस्तित्व बना रहता है, इसे ही ‘वस्तु स्थायित्व’ का गुण कहा जाता है।
2. पूर्व संक्रियात्मक अवस्था : संज्ञानात्मक विकास की यह अवस्था 2 से 7 साल की होती है। इसमें भाषा का विकास ठीक प्रकार से प्रारम्भ हो जाता है। अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा बन जाती है, गामक क्रियाएँ नहीं। संप्रत्यय निर्माण करने लगता है। वस्तुओं को पहचानना व विभेद करने लगता है, परन्तु 5 वर्ष तक उनका यह संप्रत्यय निर्माण अधूरा व दोषपूर्ण ही होता है। इस अवस्था के प्रारम्भ में नहीं, परन्तु समाप्त होते-होते वह सजीव-निर्जीव में भेद करने लगता है, कल्पना की अधिकता पायी जाती है। इस अवस्था के दो मुख्य दोष हैं-
(a) जीववाद (Animism): जीववाद बालकों के चिन्तन में पाये जाने वाला एक दोष जिसमें वह निर्जीव को सजीव समझता है। जैसे-कार, पंखा, बादल सभी को वह सजीव समझता है।
(b) आत्मकेन्द्रिताः बालक के विचार में व्यक्तिनिष्ठता पायी जाती है। वह सिर्फ अपने विचार को ही सत्य मानता है। जैसे-वह यह मानता है कि जैसे ही वह तेज दौड़ता है, तो सूर्य भी तेजी से चलना प्रारम्भ कर देता है। ये दोनों दोष 2-4 की अवधि में पाये जाते हैं। 4 7 वर्ष में बालकों का चिन्तन व तर्क पहले से अधिक परिपक्व हो जाता है, परन्तु इस चिन्तन में उत्क्रमणीय गुण (Reversibility) नहीं होती ।
3. मूर्त संक्रियात्मक अवस्था : यह अवस्था 7 से 11 वर्ष तक होती है। इसमें बालक ठोस वस्तुओं के आधार पर आसानी से मानसिक क्रियाएँ करके समस्या का समाधान करता है। वस्तुओं को पहचानना, विभेद करना, वर्गीकरण द्वारा समझना सीख जाता है, परन्तु उनका समस्या समाधान अमूर्त आधार पर नहीं होता, स्थूल या मूर्त ही होता है, वस्तुओं को देखकर ही समस्या को समझ पाते हैं, सुनकर नहीं । यही इस अवस्था का दोष है कि मानसिक संक्रियाएँ मूर्त या ठोस पर आधारित होती हैं, दूसरा दोष यह है कि चिन्तन पूर्णतः क्रमबद्ध नहीं होता ।
4. अमूर्त संक्रियात्मक अवस्थाः यह अवस्था 11 से 15 वर्ष के बीच होती है। इसमें किशोरों का चिन्तन अधिक लचीला तथा प्रभावी हो जाता है। चिन्तन में क्रमबद्धता विद्यमान रहती है, किसी भी समस्या का समाधान काल्पनिक रूप में सोचकर व चिन्तन करके करते हैं। चिन्तन में वस्तुनिष्ठता व वास्तविकता पायी जाती है। अतः कहा जा सकता है कि बालकों में विकेन्द्रण पूर्णतः विकसित हो जाता है।
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लेव वाइगोटस्की सिद्धान्त
वाइगोटस्की ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों एवं भाषा को महत्त्वपूर्ण बतलाया है, इसलिए वाइगोटस्की के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त को सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धान्त भी कहा जाता है। वाइगोटस्की के अनुसार बालक जिस उम्र में भी किसी संज्ञानात्मक कौशल को सीखते हैं, उन पर इस बात का प्रभाव पड़ता है कि क्या संस्कृति से उन सही सूचना तथा निर्देश प्राप्त हो रहे हैं या नहीं। वाइगोटस्की बताते हैं कि वास्तव में संज्ञानात्मक विकास एक अंत:वैयक्तिक-सामाजिक परिस्थिति (Interpersonal social context) में सम्पन्न होता है जिसमें बच्चों को अपने वास्तविक विकास के स्तर अर्थात जहां तक वे बिना किसी भी मदद के स्वयं कार्य कर लें, से अलग और उनके संभाव्य विकास के स्तर अर्थात जिसे वे सार्थक एवं महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की सहायता से प्राप्त करने में सक्षम हैं, के तरफ ले जाने की कोशिश की जाती है। इन दोनों स्तरों के बीच के अंतर को वाइगोटस्की ने समीपस्थ विकास का क्षेत्र कहा है। समीपस्थ विकास का क्षेत्र से तात्पर्य बच्चों के लिए ऐसे कठिन कार्यों के क्षेत्र से होता है जिसे वह अकेले नहीं कर सकता, लेकिन अन्य वयस्कों तथा कुशल सहयोगियों को मदद से उसे करना संभव है। वाइगोटस्की ने विचार किया कि वयस्कों के साथ की गई सामाजिक अन्त:क्रिया किस प्रकार बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में मदद करती है।
इस सिद्धान्त के अनुसार बालकों में चिन्तन व भाषा, दोनों ही स्वतंत्र रूप से पहले विकसित होते हैं, बाद में वे आपस में मिल जाते हैं। उनका मत था कि सभी मानसिक कार्य के बाह्य या सामाजिक उद्भव होते हैं। अपने चिन्तन पर ध्यान केन्द्रित करने से पहले बच्चों का दूसरों के साथ बातचीत करने के लिए भाषा को सीखना अनिवार्य होता है।
लॉरेंस कोहलबर्ग का सिद्धान्त
कोहलबर्ग ने विभिन्न प्रयोगों के बाद यह बताया कि व्यक्ति में नैतिक विकास मुख्य तीन अवस्थाओं से होकर गुजरता है। प्रत्येक स्तर को दो-दो अवस्था होती है। यह भी बताया कि इन अवस्थाओं का क्रम निश्चित होता है, परन्तु सभी व्यक्तियाँ में समान उम्र में ये अवस्थायें नहीं होती, व्यक्ति किसी एक अवस्था को छोड़कर आगे नहीं बढ़ता । बहुत से लोग ऐसे होते हैं जो नैतिक निर्णय के उच्चतम स्तर पर कभी नहीं पहुंच पाते तथा कुछ लोग नैतिक निर्णय के अपरिपक्व स्तर पर हमेशा पुरस्कार व दण्ड से छुटकारा पाने तक ही सीमित रहते हैं। ये तीन स्तर इस प्रकार हैं-
1. पूर्व रूढ़िगत नैतिकता स्तर (Level of pre-conventional level):
यह अवस्था 4 से 10 साल की आयु तक होती है। सही या गलत का निर्णय स्वयं के मानकों के आधार पर न लेकर दूसरे लोगों के मानकों के आधार पर लेते हैं। बच्चे किसी भी बात को अच्छा या बुरा उसके भौतिक परिणामों के आधार पर कहते हैं।
इसमें दो अवस्था होती है। प्रथम अवस्था में बालक शक्तिशाली, प्रतिष्ठित व्यक्ति या माता-पिता के प्रति सम्मान दिखाता है ताकि उन्हें दण्ड ना मिले । दूसरी अवस्था के बालकों में पुरस्कार पाने की अभिप्रेरणा प्रबल होती है। यह दिखावे की योजना होती है जिसमें बालक सहभागिता आदि दिखाता है। सही अर्थ में न्याय, उदारता, सहानुभूति पर आधारित नहीं होता ।
2. रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of conventional morality):
यह अवस्था 10 से 13 साल की होती है। इसमें बालक उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों को मदद मिले या जो समाज के नियमों के अनुकूल हो।
3.उत्तर रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of post-conventional morality) :
इस अवस्था में बच्चों में नैतिक आचरण सम्पूर्ण रूप से आन्तरिक नियंत्रण में होता है, नैतिकता का सबसे उच्च स्तर यही है।
कोहलबर्ग ने स्पष्ट किया कि जैसे-जैसे बच्चे व किशोर परिपक्व होते जाते हैं या उनकी आयु बढ़ती है, वे पूर्व कथित क्रम में नैतिकता के स्तर पर बढ़ते चले जाते हैं। वे किसी भी चरण या कदम को छोड़कर आगे नहीं बढ़ते।
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