बालक में विकास

बालक में विकास

सामाजिक विकास

बालक का व्यक्तित्व सामाजिक पर्यावरण में विकसित होता है। वंशानुक्रम द्वारा प्राप्त योग्यताएँ, समाज द्वारा ही सही दिशा में निर्देशित की जाती हैं।

एलेक्जेण्डर के अनुसार, व्यक्तित्व का निर्माण शून्य में नहीं होता, सामाजिक घटनाएँ तथा प्रक्रियाएँ बालक की मानसिक प्रक्रियाओं तथा व्यक्तित्व के प्रतिमानों को अनवरत रूप से प्रभावित करती रही हैं।

1.शैशवावस्था में सामाजिक विकास :

जन्म के समय से शिशु आत्मकेन्द्रित होता है। सामाजिक परिवेश में आने के साथ ही आत्म-केन्द्रित व्यवहार, समाप्त होता जाता है। क्रो एवं क्रो कहते हैं- “जन्म के समय शिशु न तो सामाजिक प्राणी होता है न असामाजिक, पर वह इस स्थिति में अधिक समय तक नहीं रहता।”

श्रीमती हरलॉक ने शिशु के सामाजिक विकास को इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

आयु माह                          सामाजिक व्यवहार का रूप
प्रथम माह                             ध्वनियों में अन्तर समझना
द्वितीय माह                           मानव ध्वनि पहचानना, मुस्कुराना
तृतीय माह से चतुर्थ माह        माता के लिये प्रसन्नता व माता के अभाव में दुःख
पंचम माह                            पारिवारिक सदस्यों को पहचानना।
अप्ठम व नवम् माह              परिचितों से प्यार, अन्य लोगों से भय
दशम् एवं एकादश माह        अनुकरण द्वारा हाव-भाव सीखना, संवेगों का प्रदर्शन
दूसरे वर्ष की अवधि              बड़े लोगों को उनके कार्यों में सहायता, सहयोग, सहानुभूति का प्रकाशन

2.बाल्यावस्था में सामाजिक विकास :

शिशु का संसार उसका परिवार होता है, जबकि बालक का संसार परिवार के बाहर बालकों का समूह व विद्यालय होता है।

(A) सामाजिक भावना:

  • इस अवस्था में सामाजिक जागरुकता, चेतना एवं समाज के प्रति रुझान।
  • सामाजिक क्षेत्र व्यापक व विकसित होना।
  • विद्यालयीय पर्यावरण से अनुकूलन करना।
  • नये मित्र बनाना।

(B) आत्मनिर्भरता

  • स्वयं को स्वतंत्र मानकर आत्मनिर्भर बनने की कोशिश करना।
  • बालकों के साथ रहना, निर्णय लेना सीखना।

(C) गिरोह प्रवृत्ति :

  • यह अवस्था (Gang age) समूह आयु कहलाती है।
  • खेल समूह, सेवा समूह, सांस्कृतिक समूहों का बनना।
  • अपने समूह के नियमों व मान्यताओं को मानना।

(D) नागरिक गुणों का विकास :

  • आदतों व नागरिक गुणों का विकास ।
  • बालक धनी, सुखी, विद्वान व नेता बनना चाहता है।

(E) भावना ग्रन्थि का विकास:

  • लड़कों में ऑडियस और लड़कियों में ‘एलक्ट्रा’ भावना ग्रन्थि का विकास।
  • ‘ऑडिपस ग्रन्थि’ के कारण पुत्र, माता से प्रेम करता है।
  • एलक्ट्रा ग्रन्थि’ के कारण पुत्री, पिता से प्रेम करती है।

 

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3.किशोरावस्था में सामाजिक विकास :

किशोरावस्था मानवीय जीवन की अनोखी अवस्था है। किशोरावस्था में सामाजिक विकास इस प्रकार है-

(A) आत्मप्रेम

  • स्वयं से ही प्रेम करना।
  • विषमलिंगी आकर्षण के कारण, आकर्षक बनना।

(B) सामाजिक चेतना का उदय :

  • समूह भावना, आस्था व त्याग का व्यापक रूप सामाजिक चेतना के रूप में मिलना ।
  • स्वयं का दायरा छोड़कर मानवीय दायरे में प्रवेश ।
  • देश पर प्राण न्यौछावर करने की भावना का उदय ।

(C) सामाजिक पहचान:

  • सामाजिक पहचान स्थापित करने हेतु किशोर का क्रियाशील होना।
  • व्यक्तित्व को प्रभावशाली बनाने हेतु तत्पर रहना।

संवेगात्मक विकास

संवेगात्मक विकास मानव जीवन के विकास व उन्नति के लिये अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। यह मानव जीवन को सम्पूण रूप से प्रभावित करता है। संवेगात्मक विकास सही नहीं होने पर व्यक्ति का सम्पूर्ण व्यक्तित्व विघटित हो जाता है। जब व्यक्ति अपने संवेगों का सही प्रकाशन करना सीख लेता है, तो उसे संवेगात्मक विकास कहा जाता है।

1. शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास :

इस अवस्था के संवेगों का विकास अस्पष्ट होता है क्योंकि शिशु संवेग मन्द गति से आदत से जुड़ते हैं। शारीरिक आयु के साथ-साथ संवेगात्मक विकास में तीव्रता आती है।
संवेगात्मक विकास इस प्रकार है-

संवेगात्मक विकास, शैशवावस्था में इस प्रकार है-

आयु                      संवेग (प्रकार)

जन्म के समय        उत्तेजना
1 माह                   पीड़ा-आनन्द
3 माह                  क्रोध
4 माह                  परेशानी
5 माह                  भय
10 माह               प्रेम
15 माह               ईर्ष्या
24 माह              खुशी-प्रसन्नता

2. बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास

  • इस अवस्था में संवेगों में स्थायित्व आने लगता है।
  • समाज के नियमों व संवेगों में समायोजन करना सीख जाता है।
  • प्रत्येक क्रिया के प्रति प्रेम, ईर्ष्या, घृणा व प्रतिस्पर्धा की भावना प्रकट करना प्रारम्भ करता है।

3. किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास :

किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास इस प्रकार है-

  • संवेग परिपक्व अवस्था में होता है।
  • चेतन व जागरूक होते हैं। वे समय-समय पर क्रोध, प्यार, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा एवं संवेगों का खुलकर प्रयोग करते हैं।
  • संवेगों में अत्यधिक तीव्रता पायी जाती है।

चारित्रिक विकास (नैतिक विकास)

 

शैशवावस्था

  • उचित-अनुचित का ज्ञान न होना ।
  • सामान्य नियमों का ज्ञान होना ।
  • अहम् के भाव की प्रबलता ।
  • आज्ञापालन के भाव की प्रबलता।
  • नैतिकता का उदय ।
  • कार्य के परिणाम के प्रति चेतनता ।

बाल्यावस्था में चारित्रिक विकास

मनोवैज्ञानिकों ने बाल्यावस्था को अधिक सीखने की अवस्था बताया है। यह अवस्था चारित्रिक विकास को स्थायित्व देने वाली अवस्था होती है।

स्ट्रैन्ज रथ : “छ:, सात एवं आठ वर्ष के बच्चों में विवेक, न्याय, ईमानदारी और मूल्यों के प्रति निष्ठा की भावना का विकास होने लगता है।”

  • ‘हम’ की भावना का विकास ।
  • सही-गलत, न्याय-अन्याय में अन्तर करना सीखना
  • आदर्श व्यक्तित्व का चुनाव।
  • धार्मिक भावों का उदय ।

किशोरावस्था में चारित्रिक विकास

इस अवस्था तक चारित्रिक विकास की जड़े मजबूत हो जाती हैं, वह आवश्यकतानुसार उनका चयन करता है-

  • समायोजन का अभाव ।
  • मानव धर्म का महत्त्व ।
  • सभ्यता व संस्कृति का संरक्षण ।
  • चारित्रिक गुणों का विकास ।

 

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