समस्यात्मक बालक : निष्कर्ष एवं विशेषताएं

समस्यात्मक बालक

समस्यात्मक बालक विद्यालय में आने वाले कुछ बालकों का व्यवहार समस्याएँ उत्पन्न कर देता है। इनका व्यवहार सामान्य नहीं होता,इसलिए इनको समस्यात्मक बालक कहा जाता है। वैलेन्टाइन ने कहा है-“समस्यात्मक बालक वे हैं जिनका व्यवहार और व्यक्तित्व किसी बात में गंभीर रूप से असाधारण होता है।”

अतएव कहा जा सकता है कि वे सभी बालक जिनके व्यवहार तथा व्यक्तित्व इस सीमा तक आसामान्य होते हैं कि वे घर, विद्यालय तथा समाज में समस्याओं के जनक बन जाते हैं, समस्यात्मक बालक कहलाते हैं। ऐसी स्थिति में बालको को उचित मार्गदर्शन द्वारा ही सुधारा जा सकता है, अन्यथा यही बालक भविष्य में अपराधी व समाजद्रोही बन जाते हैं।

समस्यात्मक बालक की पहचान

उपचार व मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु समस्यात्मक बालक की सही पहचान तथा उसके व्यवहार की असामान्यता की प्रकृति व सीमा की जानकारी अत्यंत आवश्यक है। किसी भी एक परिस्थिति में चालक के व्यवहार व व्यक्तित्व का निरीक्षण करके उसको समस्यात्मक प्रवृत्ति के विषय में कोई सही व निश्चित धारणा नहीं बनाई जा सकती। अतः ऐसे बालकों को वैज्ञानिक रूप से पहचान के लिए शिक्षण को विभिन्न विधियों व तकनीकों को प्रयुक्त करना चाहिए-
1.निरीक्षण पद्धति
2. साक्षात्कार विधि
3. अभिभावकों, शिक्षकों तथा मित्रों से वार्तालाप।
4. कथात्मक -अभिलेख
5. संचयी  अभिलेख
6. मनोवैज्ञानिक परीक्षण

समस्यात्मक बालक के लक्षण –

इसके व्यवहारों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है-

(A) न्यून मानसिक दक्षता व समस्यात्मक लक्षण-
1. पैसे व अन्य वस्तुओं की चोरी करना।
2 स्कूल के कामों में सक्रिय न होना
3. शारीरिक व मानसिक कष्ट देकर आनंद लेना
4 अनुशासन का विरोध करना।
5.बुरा आचरण करना।
6. असहयोग की प्रवृत्ति रखना
7.संदेह करना।
8.धोखा देना।
9.अश्लील बातें करना।
10. बिस्तर गीला करना।

(B) अत्यधिक मानसिक दक्षता का होना
1. मानसिक द्वन्द्व से ग्रसित होना।
2.हीन-भावना का शिकार होना।
3. सीमा से अधिक कठोर व्यवहार होना।
4.अप्रसन्न व चिड़चिड़ा होना।
5.भयभीत परन्तु आत्म-न्द्रित।

समस्यात्मक व्यवहार का कारण

समस्यात्मक व्यवहार को प्रदर्शित करने के निम्न कारण हैं-

1. वंशानुक्रम : वंशानुक्रम के द्वारा अनेक बीमारियों तथा अक्षमताओं से ग्रसित बालक अपेक्षित व्यवहार करने में अक्षम होते हैं। हीनता की पूर्ति करने की दृष्टि से ये आसान, किन्तु अनैतिक कार्यों की तरफ झुक जाते हैं। ये सम्बन्धित व्यक्तियों के लिए समस्याएँ उत्पन्न करते हैं। जैसे-बुद्धि दौर्बल्यता, ग्रन्थि विकास, विरासत में मिला दुयसन आदि।

2. मूल प्रवृत्तियों का दमन : मूल प्रवृत्तियों के दमन के कारण उनमें भावना ग्रन्थियाँ दब जाती हैं, फलस्वरूप वे
असामाजिक व्यवहार रखते हैं।

3. शारीरिक दोष : शारीरिक दोष के कारण ऐसा व्यवहार करते हैं।

4. वातावरणः यदि घर, विद्यालय व समाज का वातावरण दूषित होता है, तब भी बालक अवांछित व्यवहार करते हैं।
5.माता-पिता व शिक्षकों का व्यवहार : बालक के साथ तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करना या बहुत लाड़-प्यार दिखाना भी समस्या उत्पन्न कर देता है।
6.परिवार का वातावरण : माता-पिता, भाई-बहन के आपसी कलह का भी प्रभाव पड़ता है। ऐसे घरों में जहाँ विमाता होती हैं, माता-पिता में से एक का देहांत हो जाता है वहाँ समस्यात्मक बालक पाये जाते हैं। ये अनुशासनहीन हो जाते

7. नैतिक शिक्षा का अभाव : नैतिक शिक्षा के अभाव में भी बालक दुर्गुणों से युक्त हो जाता है।

8. सावेंगिक दोष : आवश्यकताओं की पूर्ति का अभाव बालक के अनेक सांवेगिक व मनोवैज्ञानिक समस्यात्मक व्यवहार
को जन्म देता है।

समस्यात्मक बालकों की शिक्षा का स्वरूप

बालक को शारीरिक दण्ड ना देकर मनोवैज्ञानिक उपायों पर बल दें-
1. परिवार में माता-पिता, उनके प्रति प्रेम व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करें।
2.बालक को मूलप्रवृत्तियों का दमन ना करें। कोई दोष अगर आ जाये तो उसकी मानसिक चिकित्सा करायें।
3.बालकों को उचित कार्यों हेतु प्रेरित, प्रोत्साहित व पुरस्कार दें।
4.उनमें नैतिक शिक्षा दें।
5. बालक की संगति पर ध्यान दें।

6 बालक को मनोरंजन के उचित अवसर दें।
7. बालक को संतुलित जेब खर्च दें।
8. अध्यापक आदर्शपूर्ण व्यवहार करें।
9.मनोरंजक शिक्षण विधि प्रयोग करें, अन्यथा बालक कक्षा से बाहर घूमते हैं या स्कूल से ही भाग जाते हैं।
10. संतुलित पाठ्यक्रम हो, ताकि बालकों पर अनावश्यक बोझ ना पड़े।
11. पाठ्योत्तर कार्यक्रमों, जैसे पिकनिक भ्रमण, स्काऊटिंग खेलकूद, नाटक, संगीत प्रतियोगिता आदि के द्वारा समस्यात्मक व्यवहारों को रोका जा सकता है।
12 बालकों में आत्मानुशासन जाग्रत करने हेतु उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य सौंपें।

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