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Ecosystem
संरचना तथा कार्य की दृष्टि से पर्यावरण (वातावरण) तथा जैविक समुदाय एक तन्त्र का निर्माण करते हैं। इस तन्त्र का निर्माण पर्यावरण के जैविक घटक तथा अजैविक घटक (वायुमण्डलीय या पारिस्थतिकीय कारक) के मध्य अन्तः क्रियाओं के परिणाम स्वरूप होता है। इस प्रकार इस तन्त्र में एक निश्चित पोषण खाद्य स्तर, खाध श्रृंखला (पोषण कड़ी), जैविक विविधता तथा अजैविक घटकों के मध्य चक्रीय विनिमय सतत् होता रहता है।
अतः यह निष्कर्ष निकलता है, कि जैव समुदाय तथा पर्यावरण (अजैविक घटक) संयुक्त रूप से एक स्थायी तन्त्र निर्मित करते हैं, यह स्थायी तन्त्र पारिस्थितिक तन्त्र कहलाता है। पारिस्थितिक तन्त्र (पारितन्त्र) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जी टैन्सले (सन् 1935) ने किया। कार्ल मोबियस (Karl Mobius) ने इकोसिस्टम के लिए बायोसिनोसिस (biocoenosis) का प्रयोग किया।
टैन्सले (AG Tansley, 1935) के अनुसार पारिस्थतिक तन्त्र वह तन्त्र है, जो वातावरण के जैविक तथा अजैविक सभी कारकों के परस्पर सम्बन्धों तथा प्रक्रियाओं द्वारा प्रकट होता है, पारिस्थितिक तन्त्र प्रकृति की एक क्रियात्मक इकाई (functional unit of nature) है!
पारिस्थितिक तन्त्र के घटक (Components of Ecosystem)
पारिस्थितिक तन्त्र के दो घटक होते हैं
जैविक घटक (Biotic Components)
(i) उत्पादक (Producers) हरे पौधे, जो सूर्य के प्रकाश में भोजन बनाते हैं, प्राथमिक या मूल उत्पाद (primary producers) कहलाले हैं। इस संश्लेषित भोजन के द्वारा पौधों में वृद्धि और प्रजनन होता है।
(ii) उपभोक्ता (Consumers) कुछ जन्तु, जैसे-कीड़े-मकोड़े, खरगोश, गाय, आदि पौधों की पत्तियों व कोमल तनों को खाते हैं, इन्हें शाकाहारी (herbivores) या प्राथमिक उपभोक्ता (primary consumer) कहते है। कुछ अन्य जन्तु; जैसे-मेंढक, शेर, चीता, आदि शाकाहारी जन्तुओं को खा लेते हैं, इन्हें द्वितीयक उपभोक्ता (secondary consumers) कहते हैं। वे जन्तु, जो मांसाहारी जन्तुओं को खा लेते हैं. तृतीयक उपभोक्ता (tertiary consumers) कहलाते हैं।
(iii) अपपटक (Decomposers) जीवाणु तथा कवक मृत शरीर के कार्बनिक पदार्थों को साधारण भौतिक तत्वों में अपघटित कर देते हैं, इन्हें अपघटक कहते है।
अजैविक घटक (Abiotic Components)
(i) भौतिक घटक (Physical components); जैसे-ताप, जल, वायु, आदि।
(ii) अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic matter); जैसे-नाइट्रोजन, कार्बन, कैल्शियम, सल्फर फॉस्फोरस, आदि।
(iii) कार्बनिक पदार्थ (Organic matter); जैसे-प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, लिपिड्स, आदि।
पारिस्थितिक तन्त्र के प्रकार (Types of Ecosystem)
पारिस्थितिक तन्त्र को कृत्रिम एवं प्राकृतिक प्रकार में विभाजित किया जा सकता है।
(i) कृत्रिम पारिस्थितिक तन्त्र (Artificial ecosystem) यह मनुष्य द्वारा संचालित होता है; जैसे-फसल पारिस्थितिक तन्त्र, जलीय जीवशाला, आदि। फार्म हाऊस,
(ii) प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्र (Natural ecosystem) ये प्राकृतिक स्थितियों के द्वारा संचालित होते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं
(a) स्थलीय (Terrestrial); जैसे-वन, घास का मैदान तथा मरुस्थलीय पारिस्थितक तन्त्र।
(b) जलीय (Aquatic) यह स्थिरजलीय स्वच्छ (lentic); जैसे-तालाब, पोखर, सरितजलीय स्वच्छ (lotic); जैसे-नदी, धारा, झरना तथा समुद्री (marine); जैसे-महासागर होता है।
तालाब का पारिस्थितिक तन्त्र (Pond Ecosystem)
हरे पौधे अर्थात् उत्पादक प्रकाश-संश्लेषण द्वारा प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदलते हैं। कुछ छोटे जन्तु अर्थात् प्राथमिक उपभोक्ता; जैसे-कोपपोड्स (copepods), हरे शैवालों को खाते हैं।
प्राथमिक उपभोक्ताओं को द्वितीयक उपभोक्ता; जैसे-कीटाणु तथा छोटी मछलियाँ खा लेते हैं। तृतीय श्रेणी के उपभोक्ता; जैसे-माँसाहारी मछलियों, बत्तख, बगुले, आदि कीटाणु तथा छोटी मछलियों को खा लेते हैं। माँसाहारी मछलियों व अन्य प्राणियों की मृत्यु के पश्चात् अपघटकों द्वारा इनके शरीर का अपघटन कर दिया जाता है।
वन पारिस्थितिक तन्त्र (Forest Ecosystem)
वन में आवृतबीजी तथा अनावृतबीजी पेड़ होते हैं। प्रायः किसी वन में विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार के पौधे पाए जाते हैं। ऊपर के स्तर पर 20 मीटर तक की ऊँचाई के पेड़ पाए जाते हैं, जो सूर्य के प्रकाश को अच्छी तरह ग्रहण करते हैं। दूसरे स्तर पर कम ऊँचाई के पेड़ व झाड़ियाँ, तीसरे स्तर पर पर्णपाती (deciduous) और सदाबहार (ever green) झाड़ियाँ तथा चौथे स्तर पर छोटे-छोटे पौधे पाए जाते हैं।
छोटे पौधों को सूर्य का पर्याप्त प्रकाश नहीं मिल पाता, इस कारण या तो ये कम वृद्धि करते हैं, या कुछ समय पश्चात् उनकी मृत्यु हो जाती है। बड़े पेड़ के नष्ट होने के बाद केवल एक पौधा ही पूर्णरूप से विकसित होकर उसका स्थान लेता है।
खाद्य श्रृंखला (Food Chain)
उत्पादकों से प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक उपभोक्ताओं तक जीवधारियों की श्रेणी के द्वारा ऊर्जा के स्थानान्तरण की प्रक्रिया खाद्य श्रृंखला (food chain) कहलाती है।
घास → खरगोश → शेर, चीता → बाज
उत्पादक प्राथमिक उपभोक्ता द्वितीयक उपभोक्ता तृतीयक उपभोक्ता
प्रकृति में खाद्य श्रृंखला तीन प्रकार की हो सकती हैं
(i) परभक्षी खाद्य श्रृंखला (Predator food chain) यह हरे पौधों से प्रारम्भ होकर छोटे जन्तुओं में और फिर बड़े जन्तुओं की ओर जाती है।
(ii) परजीवी खाद्य श्रृंखला (Parasitic food chain) यह बड़े जन्तुओं से प्रारम्भ होकर छोटे जन्तुओं की ओर जानी है।
(iii) मृतोपजीवी खाद्य श्रृंखला (Saprophytic food chain) यह मृत प्राणियों से आरम्भ होकर सूक्ष्मजीवों की ओर जाती है।
खाद्य श्रृंखला में उत्पादक से उपभोक्ता तथा अपघटक तक ऊर्जा का स्थानान्तरण सीधी कड़ी के रूप में होता है, परन्तु प्रकृति में विभिन्न खाद्य श्रृंखलाएँ आपस में जुड़कर एक तन्त्र बनाती हैं, इसे खाद्य जाल (food web) कहते हैं। इस प्रकार प्रकृति में खाद्य के अनेक वैकल्पिक रास्ते (alternative pathways) होते हैं, जो पारिस्थितिक तन्त्र में साम्यावस्था के लिए महत्त्वपूर्ण है।
पारिस्थितिक तन्त्र की गतिकी (Dynamics of Ecosystem)
पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा का प्रवेश, रूपान्तरण तथा विसरण, पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा का प्रवाह (energy flow in ecosystem), ऊष्मागतिकी के नियमों (laws of thermodynamics) का पालन करता है।
ऊष्मागतिकी के प्रथम नियम के अनुसार ऊर्जा न तो उत्पन्न की जा सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है।
ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम के अनुसार ‘ऊर्जा के रूपान्तरण की क्रिया में कुछ ऊर्जा परिवर्तित रूप में तन्त्र से परिक्षेपित अवस्था में विसरित होती है।
हरे पौधे या उत्पादक प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तित कर देते हैं। पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा का स्थानान्तरण एकदिशीय (unidirectional) होता है।
लिन्डेमान (Lindeman; 1942) के 10% नियम के अनुसार, एक पोषक स्तर से दूसरे पोषक स्तर में ऊर्जा का केवल 10% भाग स्थानान्तरित होता है, शेष 90% ऊर्जा व्यर्थ जाती है। किसी पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा का मूल स्रोत सूर्य है। पारिस्थितिक तन्त्र में खाद्य श्रृंखला जितनी छोटी होगी। ऊर्जा का हॉस उतना ही कम होगा।
पारिस्थितिक पिरामिड (Ecosystem Pyramids)
पारिस्थितिक पिरामिड का सिद्धान्त एल्टन (Elton) के द्वारा (1927) में दिया गया। पारिस्थितिक तन्त्र की पोषक संरचना एक प्रकार की उत्पादक-उपभोक्ता व्यवस्था है और पारिस्थितिक तन्त्र की पोषक संरचना का अलेखी (graphic) प्रदर्शन पारिस्थितिक पिरामिड कहलाता है। इन आलेखों में सबसे नीचे का पोषक स्तर उत्पादक तथा सबसे ऊपर का पोषक स्तर माँसाहारी का होता है।
पारिस्थितिक पिरामिड तीन प्रकार के होते हैं
(i) संख्या का पिरामिड (Pyramid of number) इस पिरामिड में प्रत्येक पोषक स्तर पर व्यक्तिगत संख्या दर्शायी जाती है। संख्या का पिरामिड घास तथा तालाब पारिस्थितिक तन्त्र में सीधा वृक्ष पारिस्थितिक तन्त्र में उल्टा होता है।
(ii) जीवभार का पिरामिड (Pyramid of biomass) इस पिरामिड में प्रत्येक पोषक स्तर पर जीवभार दर्शाया जाता है। जीवभार का पिरामिड घास पारिस्थतिक तन्त्र तथा वन पारिस्थितिक तन्त्र में सीधा, जबकि तालाब पारिस्थितिक तन्त्र में उल्टा होता है।
(iii) ऊर्जा का पिरामिड (Pyramid of energy) इसमें निहित ऊर्जा या विभिन्न पोषक स्तरों पर उत्पादकता दर्शायी जाती है। ऊर्जा का पिरामिड सभी पारिस्थितिक तन्त्रों में सदैव सीधा होता है।
उत्पादकता (Productivity)
प्राथमिक उत्पादकों द्वारा प्रकाश-संश्लेषण क्रिया द्वारा बनाए गए कार्बनिक पदार्थों की कुल मात्रा को सकल प्राथमिक उत्पादकता (gross primary productivity) कहते हैं।
प्राथमिक उत्पादकों द्वारा संचित कार्बनिक पदार्थों या ऊर्जा की मात्रा शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता (net primary productivity) कहलाती है। गुड प्राथमिक उत्पादकता, सकल प्राथमिक उत्पादकता का वह भाग है, जो श्वसन क्रिया में कार्बनिक पदार्थों के ऑक्सीकरण के पश्चात् शेष बचता है अर्थात्
शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता = सकल प्राथमिक उत्पादकता- श्वसन में प्रयुक्त ऊर्जा
उपभोक्ताओं के विभिन्न स्तरों द्वारा अधिक मात्रा में संचित पदार्थों के कारण जीवभार में हुई वृद्धि द्वितीयक उत्पादकता (secondary productivity) कहलाती है।
पारिस्थितिकी से सम्बन्धित शब्दावली
(Terminology Related to Ecology)आवास एवं पारिस्थितिक निकेत
(Habitat and Ecological Niche)
वह स्थान जहाँ जीव निवास करता है, आवास (habitat) कहलाता है, जबकि पारिस्थितिकी तन्त्र में जीवन की अभिलाक्षणिक भूमिका, सहनशीलता तथा संसाधनों के उपयोग की क्षमता की स्थिति पारिस्थितिक निकेत (ecological niche) कहलाता है। निच निकेत शब्द सर्वप्रथम ग्रिनल (Grinnel) ने सूक्ष्मवासस्थान के वर्णन के लिए प्रयोग किया। किसी जीवधारी द्वारा वास स्थान में लिया गया निश्चित भाग, समुदाय में उसका क्रियात्मक स्तर और वातावरणीय परिवर्तन दर में उसकी स्थिति को पारिस्थितिक निच (ecological niche) कहते हैं।
एक निश्चित निच में एक ही जाति रह सकती है, दो या अधिक जातियों द्वारा एक ही निच में निवास करने को पारिस्थितिक समतुल्य (ecological equivalent) कहलाता है।
इकोटॉन एवं कोर प्रभाव (Ecotone and Edge Effect)
इकोटॉन वह स्थान या क्षेत्र है, जहाँ दो प्रमुख समुदायों का सम्मिश्रण होता है अथवा यह दो बायोम (biome) के बीच की विस्तृत संक्रामी पट्टी है। वन व ज्वारनदमुखी (estuarine) संक्रामी क्षेत्रों के उदाहरण हैं अतः इकोटॉन वह संकीर्ण संगम स्थान है, जो विस्तृत समुदाय प्रदेशों के बीच स्थित होते हैं।
इसमें कुछ जीव तो दोनों प्रदेशों में होते हैं, किन्तु कुछ जातियाँ केवल इकोटॉन में सीमित रहती है। इसलिए इकोटॉन में किसी भी संलग्न बायोम की अपेक्षा जीवों की सघनता एवं विभिन्न जातियों की संख्या दोनों ही अधिक होते हैं। इकोटॉन की इस प्रवृत्ति को कोर प्रभाव (edge effect) कहते है।
कोर प्रभाव इकोटॉन की वह प्रवृत्ति है, जिसके द्वारा यह जातियों की अधिक संख्या एवं समष्टि की सघनता को बनाए रखता है। इकोटॉन में प्रमुख रूप से या अधिक संख्या में पाई जाने वाली जातियों को कोर जातियाँ कहते हैं।
उदाहरण-वन पारितन्त्र व चरागाह का सम्मिश्रण से निर्मित पट्टी कोनीफर एवं टुण्ड्रा वनों के मध्य क्षेत्र, नदी एवं समुद्र के मध्य ज्वारनदमुखी, आदि।
की स्टोन प्रजाति (Key Stone Species)
वह प्रजाति, जिसका समुदाय अथवा पारिस्थितिकी पर प्रभाव मात्र उनकी अत्यधिक संख्या के कारण ही नहीं, बल्कि आशा से कहीं अधिक उनके कार्यों से अभिव्यक्त होता है, उसे की स्टोन’ प्रजाति कहा जाता है।
ये प्रजातियाँ पारिस्थितिक तन्त्र में ऊर्जा के प्रवाह, खाद्य श्रृंखला और खनिजों के चक्रण को प्रभावित कर अपनी परस्पर क्रियाओं से समुदाय की संरचना और जैवकि घटकों को परिवर्तित कर देती है। उच्च कोटि का परभक्षी या ऐसा पौधा, जो दूसरे जीव जन्तुओं को भोजन और आश्रय प्रदान करता है, की स्टोन प्रजाति बन सकता है।
इकोटाइप एवं इकेड (Ecotype and Ecads)
इकोटाइप एक ही जाति की आनुवंशिक विविधता युक्त दो सम्मष्टियों हैं। इकेड एक ही आनुवंशिक संग्रह युक्त जीवों की समष्टि है, जिसके सदस्य फीनोटिपिक गुण; जैसे-रंग एवं आकार में भिन्नता प्रदर्शित करते हैं।
पारिस्थितिक कुशलता (Ecological Efficiency)
विभिन्न ऊर्जा स्तरों से होकर ऊर्जा प्रवाह में कितनी ऊर्जा एक स्तर से दूसरे स्तर को उपलब्ध होती है, इसे पारिस्थितिक कुशलता (ecological efficiency) कहते हैं।
जीवोम (Biome)
जलवायु के विभिन्न कारकों के तालमेल से स्थापित होने वाले जीव-जगत (biological realms) को जीवोम (biome) कहते हैं। भौगोलिक स्थिति तथा भू-आकृति के आधार पर इन्हें टुण्ड्रा (tundra), उत्तरी शंकुधारी वन (Northern coniferous forest), शीतोष्ण पर्णपाती वन (temperate deciduous forest), उष्ण कटिबन्धीय मानसूनी वन (Tropical forest), चपरल (chapparal), उष्ण कटिबन्धीय सवाना (Savanna), घास के मैदान, मरुस्थल (Desert) श्रेणियों में रखा जाता है।