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Microbiology
सूक्ष्मजैविकी उन सूक्ष्मजीवों का अध्ययन है, जो एककोशिकीय या सूक्ष्मदर्शीय कोशिका समूह के जन्तु होते हैं। इनमें यूकैरियोटिक (eukaryotic); जैसे-कवक एवं मोटिस्ट और पोकैरियोटिक (prokaryotic), जैसे-जीवाणु एवं आर्किबैक्टीरिया आते हैं। संक्षेप में सूक्ष्मजैविकी उन सजीवों का अध्ययन है, जोकि नग्न आँखों में दिखायी नहीं देते हैं।
जीवाणु (Bacteria)
जीवाणुओं का सर्वप्रथम विवरण एन्टोनी वॉन ल्यूवेनहॉक (Antonie von Leeuwenhoek) ने सन् 1676 में दिया था। ‘बैक्टीरिया’ शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम एहरेनबर्ग (Everberg) ने 1838 में किया। सभी जीवाणु मोनेरा जगत के अन्तर्गत आते हैं। जीवाणु या बैक्टीरिया (bacteria, Gk. bakterion- छडी) के कुछ समय पूर्व क्लोरोफिल रहित, सूक्ष्म, एककोशिकीय विखण्डन द्वारा प्रजनन करने वाले पौधे’ माना जाता था, क्योंकि
(i)इनकी कोशिकाओं के चारों ओर एक दृढ कोशिका भित्ति होती है।
(ii)कुछ जीवाणु अकार्बनिक पदार्थों से कार्बनिक पदार्थों का संश्लेषण कर सकते हैं।
(iii) ये केवल घुलनशील मोज्य पदार्थों का ही उपयोग कर सकते हैं।
(iv) ये विटामिन का संश्लेषण कर सकते हैं, जबकि जन्तु ऐसा नहीं कर सकते।
(v) प्रजनन की विधियों निम्न श्रेणी के पौधों जैसी ही हैं, परन्तु अब स्पष्ट हो गया, कि जीवाणु वास्तव में पौधे नहीं हैं। जीवाणुओं की कोशिका भित्तियों का रासायनिक संघटन पौधों की कोशिका भित्ति से बिल्कुल भिन्न है। यद्यपि कुछ जीवाणु प्रकाश संश्लेषण कर सकते हैं, उनमें विद्यमान बैक्टीरियोक्लोरोफिल पौधों में उपस्थित क्लोरोफिल से बिल्कुल भिन्न है। सभी जीवाणु प्रोकैरियोटी होते हैं। अतः ‘जीवाणु क्लोरोफिल रहित, एककोशिकीय अथवा बहुकोशिकीय, सूक्ष्म प्राकैरियोटिक जीवधारी है।
ग्राम धनात्मक तथा ग्राम ऋणात्मक जीवाणु
(Gram Positive and Gram Negative Bacteria)
अभिरंजन की कुछ क्रियाओं के फलस्वरूप हम दो विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं अथवा कुछ एक ही जीवाणु के विभिन्न अंगों में विभेदन कर सकते हैं। ऐसी प्रक्रिया को विभेवक अभिरंजक (differential staining) कहते हैं। ऐसी ही एक तकनीक है। ग्राम स्टेनिंग (Gram’s staining), जिसके आधार पर जीवाणुओं को दो समूहों; जैसे-ग्राम धनात्मक तथा ग्राम ऋणात्मक में बाँटा गया है। यह तकनीक क्रिश्चियन ग्राम (Christian Gram) नामक वैज्ञानिक ने सन् 1884 में विकसित की। जीवाणुओं को क्रिस्टल बैंगनी (crystal violet) नामक अभिरंजक से रंगते हैं। सभी जीवाणु बैंगनी रंग के हो जाते हैं। इसके बाद आलेप को कई बार पानी से धोकर आयोडीन के घोल में डुबोते हैं। आलेप को पुनः जल से धोकर 95% एल्कोहॉल या एसीटोन में डुबोते हैं। कई जीवाणु बैंगनी रंग छोड़ देते हैं, उन्हें ग्राम ऋणात्मक (Gram negative) कहते हैं। इसके विपरीत, जो जीवाणु अपना बैंगनी रंग बनाए रखते हैं, वे ग्राम धनात्मक (Gram positive) कहलाते हैं। ग्राम ऋणात्मक जीवाणुओं की मित्तियों में लिपिड की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक होती है। एल्कोहॉल में लिपिड घुलने से मिति में दरारें पड़ जाती हैं, जिनसे = होकर क्रिस्टल बैंगनी कोशिका से बाहर आ जाता है।
जीवाणुओं की संरचना (Structure of Bacteria)
जीवाणुओं में फ्लेजिलिन (laglin) नामक प्रोटीन से बनी कशामिकाएँ होती हैं। ग्राम ऋणात्मक जीवाणुओं में रोम अथवा फिम्बी पाए जाते हैं जीवाणुओं की कोशिका मिति म्यूरीन, पेप्टाइडोग्लाइकन या म्यूकोपेप्टाइड की बनी होती है। ग्राम धनात्मक जीवाणु की कोशिका भिति में टिकॉइक अम्ल (techoic acid) पाया जाता है। कोशिका मिति के अन्दर जीवद्रव्य होता है, जो फॉस्फोलिपिड एवं प्रोटीन की बनी जीवद्रव्य कला से घिरा रहता है। जीवद्रव्य कला अन्तर्वलित होकर मीसोसोम बनाती है। जीवद्रया कला में इलेक्ट्रॉन अभिगमन तन्त्र (Electron Transport System-ETS) तथा ऑक्सीकीय फॉस्फोरिलीकरण के एन्जाइम पाए जाते हैं। जीवाणुओं में वास्तविक केन्द्रक का अभाव होता है तथा सामान्य गुणसूत्र नहीं होते। वलयाकार, द्विरज्जुकी DNA होता है, परन्तु इसके साथ हिस्टोन प्रोटीन जुड़ी हुई नहीं होती. इस पूर्ण समूह को केन्द्रकाम (nucleoid) या जीनोफोर (genophore) कहते हैं।
कुछ जीवाणुओं जैसे ई. कोलाई में प्लाज्मिड पाया जाता है। यह लैंगिक जनन में सहायक F-कारक) फर्टीलिटी शक्ति प्रदान करने R-कारक) तथा कोलिसन्स संश्लेषण की क्षमता (Col-कारक) रखता है, जब प्लामिड, केन्द्रीकीय DNA से जुड़ा हाता है, तो इसे तब इपिसोम (episome) कहते हैं।
जीवाणुओं में पोषण (Nutrition in Bacteria)
(i) पोषण के आधार पर जीवाणु परपोषी एवं स्वपोषित होते हैं।
परपोषी (Heterotrophic), इनमें पर्णहरित नहीं होता, अतः ये अन्य जीवित या मृत जीवों पर निर्भर होते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं
(a) परजीवी (parasite), जो जीवित पौधों तथा जन्तुओं से अपना भोजन लेते हैं। जैसे-माइकोबैक्टीरिया, क्लोस्ट्रिडियम एवं स्ट्रेप्टोकोकस।
(b) मृतोपजीवी (saprophyte), जो मृत कार्बनिक पदार्थों से अपना भोजन लेते हैं, जैसे-बेसिलस माइकोइडस।
(c) सहजीवी (symbiotic), जो दूसरे जन्तु या पौधों के साथ रहकर एक दूसरे को लाभ पहुँचते हैं; जैसे-राइजोबियम।
(ii) स्वपोषी (Autotrophic), ये CO.HD व अन्य पदार्थों से अपना भोजन स्वयं बना लेते हैं। ये प्रकाश-संश्लेषी एवं रसायन संश्लेषी होते है।
रोग | बैक्टीरिया |
| पादप रोग (Plant diseases) | |
नींबू का कैंकर रोग (Citrus canker) | जैन्थोमोनास सिट्रिई (Xanthomonas citri) |
सेब, गुलाब एवं टमाटर का क्राउन गाल(Crown gall of apple, rose and tomato) | एग्रोबैक्टीरियम ट्यूमीफैसिएन्स (Agrobacterium tumefaciens) |
एंगुलर लीफ स्पॉट ऑफ कॉटन (Angular leaf spot of cotton) | जेन्थोमोनास माल्वेसिएरम (Xanthomonas malvacearurn) |
आलू का स्कैब (Potato scab) | स्ट्रेप्टोमाइसीज स्कैबीज (Streptomyces scabies) |
धान की अंगमारी (Blight of paddy) | जेन्थोमोनास ओराइजी (Xanthomonas oryzae) |
टमाटर, आलू और तम्बाकू का विल्ट (Wilt of tomato, potato and tabacco) | स्यूडोमोनास सोलेनेसिएरम (Pseudomonas solanacearum) |
|| मानव रोग (Human diseases)
हैजा (Cholera) | वित्रियो कॉलेरी Vibrio cholerae) |
अतिसार (Diarrhoea) | बैसिलस कोलाई (Bacillus coli) |
डिपथीरिया (Diphtheria) | कोरिनेबैक्टीरियम डिपथीरी (Corynebacterium diphtheriae) |
प्लेग (Plague) | पास्चुरेला पेस्ट्रिस (Pasteurella pestris) |
निमोनिया (Pneumonia) | डिप्लोकोकस न्यूमोनी (Diplococcus pneumoniae) |
टिटेनस (Tetanus) | क्लॉस्ट्रीडियम टिटेनी (Clostridium tetani) |
तपेदिक (Tuberculosis) | माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस (Mycobacteriumtuberculosis) |
टायफॉइड (Typhoid) | साल्मोनेला टाइफी (Salmonella typhi) |
सिफिलिस (Syphilis) | ट्रेपोनेमा पैलिडम (Treponema pallidum) |
भोजन विषाक्तता या बॉटुलिज्म (Food poisoning) | क्लॉस्ट्रीडियम बोटुलिनम (Clostridium botulinum) |
मेनिन्जाइटिस (Meningitis) | निसेरिया मेनिन्जाइटिडिस (Niesseria meningitidis) |
कुष्ठ रोग (Leprosy) | माइकोबैक्टीरियम लेनी(Mycobacterium leprae) |
||| जानवरों के रोग (Animal diseases) | |
जानवरों का काला पैर (Black leg of animals) | क्लॉस्ट्रीडियम कॉबिई (Clastridium chaubei) |
भेड़ का एन्थ्रेक्स रोग (Anthrax of sheep) | बैसिलस एन्यैकिस (Bacillus anthracis) |
जीवाणुओं से प्राप्त कुछ प्रमुख प्रतिजैविक एवं उनके स्त्रोत
प्रतिजैविक | स्रोत |
इरिथोमाइसिन (Erythromycin) | स्ट्रेप्टोमाइसिस इरीथीयस (S. erythreus) |
नियोमाइसिन (Neomycin) | स्ट्रप्टोमाइसिस फ्रैडी (S. fradiae) |
पॉलीमिक्सिन (Polymyxin) | बैसिलस पॉलीमिक्सा (B.polymyra) |
वेन्कोमाइसिन (Vancomycin) | स्ट्रेप्टोमाइसिस ओरीएन्टेलिस (Streptomyces orientalis) |
स्ट्रेप्टोमाइसिन (Streptomycin) | स्ट्रेप्टोमाइसिस ग्रीसियस (Streptomyces griseus) |
लेसिट्रेसिन (Bacitracin) | बैसिलस सब्टीलिस (Bacilus subtilis) |
टेट्रासाइक्लिन्स (Tetracyclines) | स्ट्रेप्टोमाइसिस ऑरिऑफिसिएन्स (S. aureofaciens) |
क्लोरेम्फेनीकॉल (Chloroamphenicol) | स्ट्रेप्टोमाइसिस वेनिज्यूली (S. venezuelae) |
जीवाणुओं से प्राप्त कुछ औद्योगिक पदार्थ
पदार्थ | जीवाणु |
लाइसिन (Lysine) | माइक्रोकोकस ग्लूटेमिकस (Micrococcus glutamicus) |
लैक्टिक अम्ल (Lactic acid) | लैक्टोबैसिलस डेलबकी (Lactobacillus delbrueckit) |
एसीटोन ब्यूटेनॉल (Acetone butanol) | क्लॉस्ट्रीडियम एसीटोब्यूटाइलिकम (Clostridium acetobutylicum) |
स्ट्रेप्टोकाइनेज (Streptokinase) | स्ट्रेप्टोकोकस इक्विसीमिलिस (Streptococcus equisimilis) |
जीवाणु तथा दुग्ध उत्पाद
पदार्थ | जीवाणु |
योगर्ट (Yogurt) | लैक्टोबैसिलस बलोरिकस (Lactobacillus bulgaricus) एवं स्ट्रप्टोकोकस थर्मोफिलस ( (Streptococcus thermophilus) |
दही (Curd) | स्ट्रेप्टोकोकस लैक्टिस (Streptococcus lactis), एवं लैक्टोबैसिलस (Lactobacillus) |
छाछ या मट्ठा (Butter milk) | लैक्टोबैसिलस बुल्गेरिकस (Lactobacillus bulgaricus) |
पनीर (Cheese) | लैक्टोबैसिलस लैक्टिस (Lactobacillus lactis) एवं स्ट्रेप्टोकोकस क्रिमोरिस (Streptococcus cremoris) |
खनिजीकरण क्रिया में जीवाणुओं की भूमिका
(Role of Bacteria in Mineralisation Process)
पौधों, जानवरों तथा मानव जाति द्वारा उत्पन्न कार्बनिक अपशिष्टों की अपार मात्रा का विघटन वातावरण में विद्यमान जीवाणुओं एवं कवकों द्वारा होता है। अतः जीवाणु एक प्रकार से प्राकृतिक अपमार्जक (natural scavenger) का कार्य करते हैं। जीवाणुओं की अनेक प्रजातियों सेलुलोज, लिग्निन, पैक्टिन, हेमीसेलुलोज, प्रोटीन, यसा, आदि अनेक पदार्थों का विघटन करने में सक्षम होती है। सेलफैसिलुका (Celfaciluca) तथा सेलविविओ (Celvibrio) सेलुलोज विघटक जीवाणुओं के उदाहरण हैं, जबकि क्लॉस्ट्रीडियम (Clostridium) तथा स्यूडोमोनास (Pseudomonas) प्रोटीन विघटक जीवाणु हैं।
विघटन की प्रक्रिया से निम्नलिखित लाभ हैं
(i) व्यर्थ के कार्बनिक अवशेषों के निरन्तर विघटन के फलस्वरूप इनके देर नहीं लग पाते।
(ii) प्रकाश-संश्लेषण के लिए CO2, की प्रचुर मात्रा में आवश्यकता होती है। विघटन के फलस्वरूप उत्पन्न CO2, पुनः वातावरण में पहुँच जाती है।
(iii) मृत कार्बनिक पदार्थों में विद्यमान खनिज पदार्थ पुनः वातावरण में जा मिलते हैं।
(iv) मृदा (मिट्टी) के एक प्रमुख अवयव, ह्यूमस (humus) का निर्माण होता है।
मृत जीवधारियों के शरीर में विद्यमान अकार्बनिक पदार्थों को अपघटन द्वारा पुनः वातावरण में पहुँचाने की क्रिया को खनिजीकरण (mineralisation) कहते हैं। इस क्रिया को सम्पन्न कराने वाले सूक्ष्मजीवों को खनिजकारक (mineralisers) कहते हैं। खनिजकारक यदि नहीं होता, तो ये कार्बनिक अवशेष ऐसे ही वातावरण में पड़े रहते तथा खनिज पदार्थ जीवधारियों को उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।
जीवधारियों के शरीरों में अनेक तत्व; जैसे-कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, सल्फर, आदि पाए जाते हैं।
इन तत्वों का अलग-अलग कार्यनिक व अकार्बनिक रासायनिक पदार्थों के रूप में जीवधारियों से वातावरण में तथा वातावरण से जीवधारियों में चक्रीय रूप में आदान-प्रदान होता है। इसे द्रव्यों का चक्रीकरण (cycling of matter) कहते हैं।
नाइट्रोजन स्थिरीकरण में जीवाणुओं की भूमिका
(Role of Bacteria in Nitrogen Fixation)
मोनेरा की अनेक जातियों वायुमण्डल की N2को नाइट्रोजनी यौगिकों में बदलने की क्षमता रखती है। इस क्रिया को नाइट्रोजन स्थिरीकरण (N2-fixation) कहते हैं। पेड़-पौधे स्वतन्त्र रूप में हवा से नाइट्रोजन नहीं ले सकते। मिट्टी में रहने वाले कुछ जीवाणु हवा से नाइट्रोजन लेकर नाइट्रोजन यौगिकों में बदल देते हैं तथा उन्हें मिट्टी में स्थिर कर देते हैं, जिन्हें पौधे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। अनेक जीवाणु व सायनोबैक्टीरिया वायुमण्डल से भारी मात्रा में N2 का स्थिरीकरण करते हैं।
उदाहरण एजोटोबैक्टर (Azotobacter), एजोस्पाइरिलम (Azospirillum) तथा क्लॉस्ट्रीडियम (Clostridium) बैक्टीरिया की कुछ जातियाँ स्वतन्त्र रूप से मिट्टी में निवास करती हैं व मिट्टी के कणों के बीच स्थित वायु की नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं। इसी प्रकार एनाबीना (Anabaena) तथा नॉस्टॉक (Nostoc) नामक साइनोबैक्टीरिया भी वायुमण्डल की N2 का स्थिरीकरण करते हैं। स्वतन्त्र जीवधारियों द्वारा किए गए नाइट्रोजन स्थिरीकरण को असहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण (asymbiotic N2-fixation) कहते हैं। राइजोबियम (Rhizobium) तथा ब्रैडीराइजोबियम (Bradythizobium), आदि जीवाणुओं की जातियाँ लैग्युमिनोसी (मटर कुल) के पौधों की जड़ों में ग्रन्थिकाओं (nodules) में पायी जाती हैं, ये बैक्टीरिया वायुमण्डलीय N2 का स्थिरीकरण करके उसको नाइट्रोजनी कार्बनिक यौगिकों में परिवर्तित कर देते हैं। इन पदार्थी का उपयोग न केवल बैक्टीरिया, बल्कि पौधों के द्वारा किया जाता है। बदले में पौधे, बैक्टीरिया को आवश्यक कार्बोहाइड्रेट प्रदान करते हैं। अतः बैक्टीरिया व पौधों के बीच यह साहचर्य दोनों के लिए लाभदायक सिद्ध होता है। इस प्रकार के परस्पर लाभकारी सम्बन्ध को सहजीविता कहते हैं। सहजीवी जीवाणुओं द्वारा किए जाने वाले इस नाइट्रोजन स्थिरीकरण को सहजीवी नाइट्रोजन स्थिरीकरण (symbiotic N2-fixation) कहते हैं।
आर्कीबैक्टीरिया (Archaebacteria)
यह विविधि प्रकार के प्रोकैरियोटिक जीवों का समूह है, जिनके लक्षण सामान्य जीवाणुओं से काफी भिन्न होते हैं। इनकी कोशिका मित्ति पेप्टिडोग्लाइकॉन (म्यूरिन) की नहीं बनी होती, बल्कि प्रोटीनों, ग्लाइकोप्रोटीनों तथा पॉलिसकेराइडों की बनी होती है। कुछ आर्कविक्टीरिया की कोशिका भित्ति कूटम्यूरिन (pseudomurein) की बनी होती है, जो सामान्य बैक्टीरिया की म्यूरिन जैसी ही होती है। इसमें एक अन्तर यह है, कि एसीटाइल म्यूरेमिक अम्ल के स्थान पर एसीटाइल ग्लूकोसेमीनोयूरोनिक अम्ल होता है। ये आर्कीबैक्टीरिया को अत्यधिक ताप व अम्लता से सुरक्षा प्रदान करते हैं, जिन परिस्थितियों में ये निवास करते हैं, उनके आधार पर आबिक्टीरिया को तीन समूहों में बाँटा जाता है; जैसे-मेथेनोजन, हैलोफाइल्स, थर्मोएसिडोफाइल्स।
1. मेथेनोजन (Methanogaens)
इस समूह में अविकल्पी अवायवीय आर्कीदैक्टीरिया सम्मिलित किए जाते हैं, जो कि दलदल वाले स्थानों तथा पशुओं के प्रथम आमाशय (ramen) में पाए जाते हैं। अन्य अवायवीय जीवों द्वारा किण्वन के फलस्वरूप उत्पन्न CO2.H2 फॉर्मिक अम्ल तथा एसीटिक अम्ल जैसे पदार्थों को ये आकीबैक्टीरिया अथवा मिथेन और CO2 में परिवर्तित कर देते हैं इसलिए इन्हें मेथेनोजन (अर्थात् मिथेन-उत्पादक) कहते हैं जैस गैस संयन्त्रों में इन्हीं जीवाणुओं द्वारा मिथेन गैस उत्पन्न की जाती है।
उदाहरण-मिथेनोबैक्टीरियम (Methanobacterium) एवं मिथेनोकोकस (Methanococcus)
2. हैलोफाइल्स (Helophiles)
ये अत्यधिक लवणीय वातावरण में पाए जाते हैं अत्यधिक लवण वाले जलाशयों व झीलों में ये अत्यधिक संख्या में विद्यमान रहते हैं।
उदाहरण-हैलोबैक्टीरिया ।
इस समूह के आर्कीबैक्टीरिया की एक विशेषता यह है, कि सूर्य के तीव्र प्रकाश में इनमें एक बैंगनी रंग की झिल्ली विकसित हो जाती है। यह बैंगनी झिल्ली उन्हें तेज प्रकाश के दुष्प्रभाव से तो बचाती है साथ ही प्रकाश ऊर्जा का उपयोग करके ATP का संश्लेषण भी करती है, जिसका कोशिका की उपापचयी क्रियाओं के संचालन के लिए उपयोग किया जाता है, परन्तु इस क्रिया में CO2 से शर्करा का निर्माण नहीं होता, इसलिए यह क्रिया प्रकाश-संश्लेषण से भिन्न होती है।
3. थर्मोएसीडोफाइल्स (Thermoacidophiles)
ये विविध प्रकार के आर्कीबैक्टीरिया अधिक ताप एवं अम्ल वाले स्थानों पर निवास करते हैं। ये गर्म सल्फर-युक्त झरनों में पाए जाते हैं। वायवीय परिस्थितियों में, 80°C तापमान पर ये सल्फर को SO2, में ऑक्सीकृत कर देते हैं। इसके फलस्वरूप इनका वातावरण अत्यधिक अम्लीय (pH2.0) हो जाता है। अवायवीय परिस्थितियों में ये सल्फर को हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S) में अपचयित कर देते हैं। उदाहरण सल्फोबोलस (Sulfabolus). थर्मोप्लाज्मा (Themoplasma), थर्मोप्रोटियस (Thermoproteus)!
विषाणु (Virus)
विषाणु अतिसूक्ष्म, परजीवी, अकोशिकीय और विशेष न्यूक्लियोप्रोटीन कण हैं। ये सजीव एवं निर्जीव के मध्य की कड़ी हैं। अधिकाश विषाणु जन्तुओं व पौधों में घातक रोग उत्पन्न करते हैं। इनको क्रिस्टलीय अवस्था में अलग करके संचित किया जा सकता है।
ये केवल जीवित कोशिका के अन्दर वृद्धि कर सकते हैं। विषाणु के अस्तित्व की खोज रूसी वैज्ञानिक इवानोस्की ने 1892 में तम्बाकू के पौधों (चितेरी रोग के कारण) का निरीक्षण करते समय की थी।
विषाणु न्यूक्लियोप्रोटीन्स के बने हैं, जो जन्तुओं व पादपों के गुणसूत्रों के न्यूक्लियोप्रोटीन्स के समान होते हैं। ये जन्तुओं, पेड़-पौधों व बैक्टीरिया सभी में पाये जाते हैं।
सजीव लक्षण (Living Characters)
- विषाणु में न्यूक्लिक अम्ल का द्विगुणन होता है।
- किसी जीवित कोशिका में पहुँचते ही ये सक्रिय हो जाते हैं और एन्जाइमों का संश्लेषण करने लगते हैं।
- सजीव कोशिकाओं की भाँति इनमें भी RNA अथवा DNA मिलता है।
निर्जीव लक्षण (Non-living Characters)
- विषाणु कोशिकीय रूप में नहीं होते हैं तथा इनमें कोशिकीय अंग नहीं पाये जाते।
- इनमें पोषण, श्वसन, वृद्धि, उत्सर्जन और उपापचयी क्रियाएँ नहीं होती हैं।
- इनके रबे को क्रिस्टल बनाकर निर्जीव पदार्थ की भाँति बोतलों में भरकर कई वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
- प्रत्येक विषाणु प्रोटीन-खोल (capsid) में सामान्यता RNA या DNA का अणु होता है।
यूकैरियोटिक सूक्ष्मजीव (Eukaryotic micro organisms)
शैवाल (Algae)
जैलीडियम (Gelidium) तथा प्रेसीलेरिया (Gracilaria) नामक शैवालों से अगार-अगार (agar-agar) का औद्योगिक उत्पादन किया जाता है। यह जिलेटिन (gelatin) जैसा पदार्थ होता है। किसी द्रव में इसे मिलाकर गर्म करके तथा फिर ठण्डा करने पर द्रव का ठोस में परिवर्तन हो जाता है। इसका उपयोग प्रयोगशाला में सूक्ष्मजीवों के संवर्धन (culture) करने के लिए प्रयोग में आने वाले संवर्धन माध्यमों (culture media) को तैयार करने में किया जाता है। इसके अतिरिक्त यह अनेक खाद्य पदार्थों में बन्धक (binder) तथा प्रगादक (thickener) के लिए प्रयोग किया जाता है। शैवालों के अन्य उपयोग निम्न हैं
- कैरागीनिन (carrageenin) का भी अनेक खाद्य पदार्थों में बन्धक तथा प्रगादक की भाँति प्रयोग किया जाता है। यह भी लाल शैवाल की कोशिका भित्ति से प्राप्त होता है।
- लैमिनेरिया में आयोडीन की प्रचुर मात्रा पायी जाती है। इसके खाने से घंघा रोग नहीं होता।
- क्लोरेला में प्रोटीन तथा विटामिन की प्रचुर मात्रा होती है। अन्तरिक्ष यात्री क्लोरेला से भोजन तथा ऑक्सीजन दोनों प्राप्त करते हैं।
- शैवालों से एलजिनिक अम्ल प्राप्त होता है, जिसका उपयोग थिकनर के रूप में सौन्दर्य प्रसाधन एवं कपड़ा उद्योग में किया जाता है।
- शैवालों से ‘एलीजन’ नामक पदार्थ प्राप्त होता है, जो टाइपराइटरों एवं अज्वलनशील फिल्मों के निर्माण में प्रयुक्त होता है।
यीस्ट (Yeast)
यीस्ट की कोशिका भित्ति पतली एवं काइटिन (chitin) की बनी होती हैं। कोशिकाद्रव्य के चारों ओर कोशिका कला होती है, जिसके अन्दर सभी कोशिकांग; जैसे-राइबोसोम, माइटोकॉण्ड्रिया, एण्डोप्लाज्मिक रेटिकुलम, वसा कण, आदि विद्यमान होते हैं। कोशिका के केन्द्र में एक बहुत बड़ी रिक्तिका (vacuole) होती है। जिसमें एक केन्द्रक’ संलग्न होता है।
यीस्ट कोशिकाओं में शर्कराओं के किण्वन की अभूतपूर्व क्षमता होती है। इस प्रक्रिया में ये एल्कोहॉल तथा CO2 उत्पन्न करती है। इसीलिए, इनका प्रयोग डबलरोटी या बैकिंग तथा ब्रीविंग उद्योग में किया जाता है। इस प्रकार डबलरोटी, खमीर, शराब, बीयर, सक्सिनिक अम्ल, फैटी अम्ल, आदि के निर्माण में इनका अत्यधिक उपयोग होता है। कुछ यीस्ट; जैसे-एशिबिया गोस्सिपाई (Ashybya gossypi) सेराइबोफ्लेविन, आदि विटामिन प्राप्त किये जाते हैं।
कवक (Fungi)
कवक से प्राप्त प्रतिजैविक (Antibiotics Obtained from Fungi)
कवक | प्रतिजैविक |
पेनिसिलियम नॉटेटम | पेनिसिलिन |
पेनिसिलियम क्लेवीफोर्मी | क्लैविसिन |
पे. सिट्रिनम | साइट्रिनिन |
पे. ग्रीसियोफ्यूल्विन | ग्रीसियोफिलेबिन |
पे. फ्यूबेरुलम | फ्यूबेरिक एसिड |
ट्राइकोडर्मा | ग्लिओटॉक्सिन |
कीटोमोन | कीटोमियम |
रोग | कवक |
पादप रोग (Plant diseases)
आलू की विलम्बित अंगमारी (Late blight of potato) | फाइटोपयोरा इन्फैरटैन्स (Phytophthora intestans) |
क्रूसीफेरी कुल के पौधे (सरसों आदि) का श्वेत किट्ट (Whiterust of crucifers) | अल्ब्यूगो कैण्डिडा (Albugo candida) |
राई में एर्गट (Ergot of rye) | क्लैविसेप्स परप्यूरिया (Claviceps purpurea) |
गेहूँ का श्लथ कंड (Loose smut of wheat) | उस्टिलैगो ट्रिटिसाई (Ustilago tritici) |
गेहूँ का काला किट्ट (Black rust of wheat) | पक्सीनिया ग्रेमिनिस ट्रिटिसाई (Puccinia graminis tritici). |
गन्ने की लाल किट्ट (Red rust of sugarcane) | कोलिटोट्राइकम फैल्केटम (Colletotrichum falcatum) |
आलू टमाटर की प्रगामी अंगमारी (Early blight of potato/ tomato) | अल्टरनेरिया सोलेनाई (Alternaria solani) |
मक्का का कण्ड (Maize smut) | अस्टीलैगो मेयडिस (Ustilago maydis) |
अनाजी पौधों की मृदुरोमिल आसिता (Downy mildew of cereals) | स्क्लेरोस्पोरा मिनिकोला (Sclerospora graminicola) |
अनाजों का श्वेत चूर्ण रोग (Powdery mildev of cereals). | इरिसाइफी प्रेमिनिकोला (Erysiphe graminicola) |
नाशपाती, आडू का विगलन (Brown rot of pear and peach) | स्क्लेरोटिनिया फ्रूटिकोला(Sclerotinia fruiticola) |
मानव रोग (Human diseases)
दादी एवं बालों में दाद (Dermatomycoses of beard and hair) | ट्राइकोफायटॉन वेरूकोसम (Trichophyton verrucosum) |
मुख एवं जीभ में दाद (Dermatomycoses of mouth and tongue), | कैण्डिडा एल्बिकैन्स (Candida albicans) |
कान का दाद (Dermatomycoses of ear) | कैण्डिडा एल्बिकैन्स एवं एस्परजिलस(Candida albicans, Aspergillus) |
मेनिन्जाइटिस (Meningitis) | क्रिप्टोकस नीओफोर्मेन्स (Cryptococcus neoformans) |
एथलीट फुट (Athlete’s foot) | टीनिया पेडिस (Tenea pedis) |
ऐल्परजिलोसिस (Aspergillosis) | एस्परजिलस फ्यूमिगेटस (Aspergillus fumigatus) |